पुराने समय में साधु-संत खडाऊ यानि लकड़ी की चप्पल पहनते थे पैरों में लकड़ी के खड़ाऊ पहनने के पीछे भी हमारे साधु संतों की सोच पूरी तरह साइंटिफिक थी गुरुत्वाकर्षण का जो सिद्धांत वैज्ञानिकों ने बाद में प्रतिपादित किया उसे हमारे ऋषि मुनियों ने काफी पहले ही समझ लिया था
उस सिद्धांत के अनुसार शरीर में प्रवाहित हो रही विद्युत् तरंगे गुरुत्वाकर्षण के कारण प्रथ्वी द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं यह प्रक्रिया अगर निरंतर चले तो शरीर की जैविक शक्ति समाप्त हो जाती है इसी जैविक शक्ति को बचाने के लिए साधु संतों ने पैरों में खडाऊ पहनने की प्रथा प्रारंभ की ताकि शरीर की विद्युत् तरंगों का प्रथ्वी की अवशोषण शक्ति के साथ संपर्क न हो सके पुरातन समय में चमड़े का जूता कई धार्मिक सामाजिक कारणों से समाज के एक बड़े वर्ग को मान्य न था और कपडे के जूते का प्रयोग हर कहीं सफल नहीं हो पाया
जबकि लकड़ी के खड़ाऊ पहनने से किसी धर्म व समाज ले लोगों को आपत्ति नहीं थी इसलिए यह अधिक प्रचलन में आए कालांतर में यही खड़ाऊ ऋषि-मुनियों के स्वरुप के साथ जुड़ गए