भारतीय मीडिया के साथ अनेक समस्याएं हैं। ये समस्याएं प्रासंगिकता, सिंघाड़ और अन्याय से संबंधित हैं। प्रासंगिकता मीडिया पर अक्सर बहुत अधिक रूप से प्रभाव डालती है और सिंघाड़ और अन्याय के साथ अपने संदेश को प्रसारित करने के लिए दूसरों को दबाना आम बात हो गई है। इसके अतिरिक्त, ऋण और राजनीतिक दबावों को भी मीडिया को प्रभावित करने के लिए उपयोग किया जाता है।
भारतीय मीडिया समीक्षा – क्या बदल रहा है?
जब आप अखबार या टीवी देखते हैं, तो अक्सर यही सवाल आता है – क्या ये सच में जनता की आवाज़ दे रहे हैं या कुछ और? भारत के बड़े‑बड़े चैनल और रोज़नामे आज के मुद्दों को कैसे पेश कर रहे हैं, इस पर कई लोग सवाल उठा रहे हैं। इस लेख में हम रोज़मर्रा की भाषा में उन समस्याओं को देखेंगे जो अब तक खुलके सामने नहीं आई थीं।
मुख्य समस्याएं
पहली बात तो यह है कि प्रासंगिकता बहुत बार पीछे छूट जाती है। कई बार टूटती हुई खबरों को शीर्षक में बड़ा‑बड़ा बनाकर पेश किया जाता है, जबकि असली असर लोगों की ज़िंदगी में नहीं दिखता। दूसरी समस्या सिंगुलरिशन या ‘एक ही नजरिये से सबको देखना’ है। अगर आप पॉलिटिकल या आर्थिक शक्तियों के रिश्ते में फँसे चैनल से समाचार सुनते हैं, तो आपको उस दिशा में मोड़ कर दिया जाता है।
तीसरा बड़ा मुद्दा है राजनीतिक दबाव। कई बार राजनैतिक पार्टियों की उधारी या विज्ञापन का दबाव मीडिया को चुप कर देता है। इससे कुछ मुद्दे धुंधले पड़ जाते हैं और जनसाधारण को सही जानकारी नहीं मिल पाती। साथ ही, मीडिया में नौकरी की सुरक्षा का डर भी लोगों को आलोचना से बचने पर मजबूर करता है।
संभावित समाधान
समाधान के लिए सबसे पहले हमें मीडिया की स्वतंत्रता को सुदृढ़ करना होगा। अगर मालिकों और विज्ञापनदाताओं से अलग होकर, खुद निधि जुटाने के मॉडल अपनाए जाएँ, तो राजनीतिक दबाव कम हो सकता है। दूसरा, न्यूज़ एग्रीगेटर प्लेटफ़ॉर्म को प्रोत्साहित करना चाहिए जो विभिन्न स्रोतों से समाचार दिखाएँ, ताकि एक ही दृष्टिकोण से ही जानकारी न मिले।
तीसरा कदम शिक्षा स्तर पर है। लोग अगर मूलभूत मीडिया लिटरेसी सीखें, तो वे हेडलाइन के पीछे की सच्चाई को पहचान पाएँगे। स्कूल और कॉलेज में इसको सिखाने से पीढ़ी बदल सकती है। साथ ही, माननीय पत्रकारों को सुरक्षित रूप से खुले तौर पर लिखने की आज़ादी मिलनी चाहिए, ताकि वे बिना डर के मुद्दों को उजागर कर सकें।
साथ ही, हम सब को भी अपना हिस्सा निभाना चाहिए। जब आप किसी ख़बर को पढ़ते या सुनते हैं, तो उस पर थोड़ा रुक कर सोचना ज़रूरी है – क्या यह पूरा सच है या सिर्फ एक पक्ष से दिखाया गया है? सोशल मीडिया पर शेयर करने से पहले भरोसेमंद स्रोत देखना चाहिए।
अंत में, यह कहना सही होगा कि मीडिया को सुधारने का उपाय सिर्फ बड़े‑बड़े बदलाव नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के छोटे‑छोटे कदमों से भी शुरू हो सकता है। जब तक हम खुद सतर्क नहीं होते, तब तक कोई भी प्लेटफ़ॉर्म पूरी तरह से भरोसेमंद नहीं बन पाएगा। तो चलिए, हम भी अपनी आवाज़ उठाएँ और मीडिया को उनसे जवाबदेह बनाएं जो इसे चलाते हैं।